भरहुत-स्तूप मध्य भारत के वर्तमान राज्य मध्य प्रदेश के सतना जिले में अमरपाटन रोड़ पर स्थित है। इस स्तूप की भव्य कलात्मकता और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ने पिछले 150 वर्षों में कई पुरातत्वविदों और शोधकर्ताओं को आकर्षित किया है। स्तूप को पहली बार 1873 में अलेक्जेंडर कनिंघम ने देखा था।
इसके कुछ महीनों बाद, इस स्तूप का व्यापक उत्खनन कार्य 1874 में कनिंघम द्वारा किया गया था। राजा धनुभूति द्वारा दान किए गए उत्खनन कार्य में पाए गए शिलालेख उल्लेखनीय हैं। इस स्तूप की कलात्मकता सांची जैसी है। बुद्ध के जीवन से संबंधित विभिन्न घटनाओं को इसके अभिलेखीय और वेदिका स्तंभों पर प्रमुखता से चित्रित किया गया है।


खुदाई में नक्काशीदार तोरण, वेदिका, जातक – कथाओं का शिल्पांकन, अभिलेख, अनेक बहुमूल्य सामग्री मिली। भरहुत स्तूप के लाल पत्थर पर जो नक्काशी है, पॉलिश की जो अदाकारी है, वो महोगनी की लकड़ी का भ्रम पैदा करता है और सहसा यकीन नहीं होता कि हमारे पुरखे दो हजार साल पहले भी इतने बड़े कलाकार रहे होंगे।
इसकी वेदिका का निर्माण मौर्य काल में अशोक ने ईटे गारे से करवाया था इसके चारों दिशाओं में तोरण द्वार है जिस पर अर्धचंद्र बना हुआ है और बहुत सारी आकृतियों का चित्रों का उल्लेख मिलता है जिससे हमें मौर्य काल के और बौद्ध धर्म के संदर्भ में बहुत कुछ ज्ञात होता है बौद्ध धर्म से संबंधित भगवान गौतम बुद्ध के पूर्व जन्म के जातक कथा से संबंधित चित्रों का उल्लेख मिलता है जिसमें से एक चित्र में या दिखाया जाता है की एक स्त्री के पेट में आकाश से हाथी प्रवेश कर रहा है इससे मायादेवी सपना और और क्रांति कहां गया है।
अंग्रेज इसे लंदन ले जाना चाहते थे, कनिंघम ने विरोध किया। कनिंघम यूरोपियन थे, मगर दिल भारत के लिए धड़कता था।
भरहुत गाँव में 200 से अधिक घर तब के जमाने में भरहुत स्तूप की ईंटों से बनाए गए थे। कनिंघम ने स्तूप की बर्बादी अपनी आँखों से देखी थी।
वे स्तूप – सामग्री को कोलकाता म्यूजियम में संरक्षित करना चाहते थे। तब ग्रेट इंडियन पेनिनसुला रेलवे का जमाना था, भरहुत के नजदीक कोई रेलवे स्टेशन नहीं था। आखिरकार भरहुत स्तूप की खुदाई में मिली विशाल सामग्री को रेलवे से कोलकाता भेजने के लिए भरहुत के पास नया रेलवे स्टेशन बनवाया गया। वहीं लगरगवाँ रेलवे स्टेशन है।
कनिंघम के जमाने में 200 से अधिक घर भरहुत गाँव में भरहुत स्तूप की ईंटों को लूटकर बनाए गए थे, विचार कीजिए कि भरहुत स्तूप की भव्यता प्राचीन काल में कैसी रही होगी।
भला हो एलेक्जेंडर कनिंघम को कि वे सभी कुछ सहेजकर और ट्रेन पर लदवाकर कोलकता म्यूजियम में करीने से रखवा दिए।
वरना आज हम कैसे जान पाते कि विपस्सी बुद्ध, ककुसंधस बुद्ध, कोणागमन बुद्ध और कसपस बुद्ध भी हुए, जीवक का जीवंत अस्पताल हम कैसे देखते, कैसे देखते वो जेतवन विहार, राजा प्रसेनजित और राजा धनभूति की वो दानवीरता।






भरहुत स्तूप के सर्वाधिक विख्यात दानदाता राजा धनभूति हैं, पूरबी सिंहद्वार पर, रेलिंग पर राजा धनभूति का नाम लिखा है। पूरबी सिंहद्वार पर लिखा है—-सुगनं रजे रञो गागीपुतस विसदेवस पोतेन गोतिपुतस आगरजुस पुतेन वाछीपुतेन धनभूतिन कारितं तोरनं। अर्थ हुआ कि सुगन राज्य के सम्राट गागीपुत्र विसदेव के पौत्र और गोतिपुत्र आगरजु के पुत्र वाछीपुत्र धनभूति ने यह तोरण बनवाया। मतलब कि राजा धनभूति के पिता का नाम आगरजु था, माँ का नाम वाछी था और इनके दादा गागीपुत्र विसदेव सुगन राज्य के सम्राट थे।
भरहुत रेलिंग के एक अभिलेख में धनभूति ने अपने – आप को राजा लिखवाया है, फिर वह शुंगों का सामंत कैसे हुआ?
भरहुत के पूरबी सिंहद्वार पर जो राजमिस्त्री के निशान बने हैं, वे खरोष्ठी में हैं।
इसलिए कनिंघम को विश्वास था कि धनभूति द्वारा बनवाए गए तोरण में पश्चिमोत्तर के कारीगरों का भी योगदान है और यह पश्चिमोत्तर सुघ का निकटतम इलाका है। सुगन वंश सुघ जनपद का प्राचीन वंश है, इसी सुगन वंश के धनभूति ने भरहुत स्तूप का सिंहद्वार और रेलिंग बनवाए थे, इसे बनवाए जाने का श्रेय शुंगों को नहीं मिलना चाहिए। ईसा पूर्व में सुगन वंश की वंशावली कुछ ऐसी बनेगी : 1. राजा विसदेव ( भरहुत अभिलेख ) 2.आगरजु ( सुघ और कौशांबी से प्राप्त ताम्रखंड) 3. धनभूति -। ( भरहुत अभिलेख ), 4. वधपाल ( रेलिंग अभिलेख), 5.धनभूति -।।( मथुरा अभिलेख )।
भरहुत स्तूप के शिल्पांकन में नागराजा एरपत का नाम लिखा है। लिखा है — ” एरपतो नागराजा भगवतो वंदते “, अर्थ हुआ कि नागराजा एरपत भगवत ( बुद्ध ) की वंदना करते हैं। तस्वीर में नागराजा एरपत घुटनों के बल झुके हुए हैं, ऊपर पाँच फन का नाग गण – प्रतीक है। इसी एरपत नाग से ऐरावत नाग का विकास हुआ है, नाग का अर्थ साँप और हाथी दोनों है। ऐरावत हाथी इंद्र का वाहन है, जिसको पाँच सूँड़ हैं। पाँच फन के एरपत नाग से पाँच सूँड़ का ऐरावत नाग ( हाथी ) का विकास हुआ है, जो आगे चलकर पौराणिक कथाओं में इंद्र का वाहन हुआ। एक फूले हुए वृक्ष के नीचे खाली सिंहासन है, खाली सिंहासन बुद्ध का प्रतीक है, खाली सिंहासन के समक्ष एरपत नागराजा वंदना की मुद्रा में घुटनों के बल झुके हुए हैं। नागराजा एरपत का विवरण धम्मपद की गाथा संख्या 182 की Commentary में मिलता है, फिर ह्वेनसांग के यात्रा – वृत्तांत में भी, धम्मपद में नागराजा एरपत का नाम एरकपत्त मिलता है। इसी नागराजा एरक ( पत्त ) के नाम पर म. प्र. में एरकेण ( एरिकिण ) है, जिसे फिलहाल एरण /ऐरण कहा जाता है और अंग्रेजी में Eran बोला जाता है, यह तोरमाण आदि के कारण ईरानी प्रभाव का उच्चारण है। एरक क्षेत्र में कभी बौद्ध नागवंशीय राजाओं का शासन था, वहाँ से कमल, बोधिवृक्ष प्रकार के पुराने सिक्के मिले हैं। एरण पुरास्थल कोई 3 वर्ग किलोमीटर में फैला है, मुख्य टीले पर वर्तमान एरण गाँव बसा है। भरहुत स्तूप पर अंकित एरपत नाग ( एरकपत्त, एरक ) इसी एरकण क्षेत्र का शासक थे और बौद्ध थे। महाभारत जो अपने आदिपर्व में, जिस एरक नाग का उल्लेख करता है ( पृ. 57), वह भरहुत स्तूप का एरपत नाग ही हैं।

भरहुत स्तूप पर एक राजा का नाम तस्वीर सहित उत्कीर्ण है।
राजा का नाम है —चकवाक नागराज, लिखा है चकवाको नागराज।
जाहिर है कि ये नागवंशीय राजा थे और सिर पर गण का टोटम नाग धारण करते थे।
यही नागवंशी राजे बुद्ध के संरक्षक थे, सो अनेक बुद्ध प्रतिमाओं के सिर पर यह टोटम दिखाई पड़ता है।
कहाँ है भारत के राजनीतिक इतिहास में राजा चकवाक का इतिहास? आपने तो उन्हें साँप समझकर छोड़ दिया है।
राजा मुचलिंद को साँप बनाकर, राजा महिस को भैंसा बनाकर, किसी – किसी को राक्षस तो लंगूर बनाकर प्राचीन भारत का प्रायः राजनीतिक इतिहास खत्म कर दिया गया है, लेकिन जनता के बीच चाहें जिस रूप में भी, आज भी जिंदा हैं।
भरहुत स्तूप पर एक पाँच मुख वाला नाग है और इस नाग की छत्रछाया में चक्र अंकित दो पदचिह्न हैं।
चक्र अंकित दो पदचिह्न गौतम बुद्ध के प्रतीक हैं, जिन्हें नागराज मुचलिंद रक्षा कर रहे हैं।
जहाँ पदचिह्न है, वहाँ गौतम बुद्ध की उपस्थिति है और जहाँ पंचफण है, वहाँ मुचलिंद राजा की उपस्थिति है।
राजा मुचलिंद का नाम लिखा है— मुचिलि नागराज।
मगर इतिहासकारों ने राजा मुचलिंद को साँप मानकर इनका इतिहास छोड़ दिया है।


स्तूप और अन्य विशेष विशेषताओं की खुदाई में मिले वेदिका और तोरण द्वार आज भी कोलकाता संग्रहालय में देखे जा सकते हैं। इसके अलावा, कुछ अन्य पुरावशेषों को दिल्ली और इलाहाबाद संग्रहालय के राष्ट्रीय संग्रहालय में भी प्रदर्शित किया गया है। इस जगह के कुछ अवशेष कनिंघम द्वारा कोलकाता ले जाए जाने के दौरान समुद्र में डूब गए थे। बाद में, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा किए गए उत्खनन कार्य में, इस स्तूप के अन्दर और मध्य भाग के निर्माण सामग्री के लिए ईंटों का भी वर्णन किया गया है। भरहुत स्तूप का निर्माण मौर्य सम्राट अशोक द्वारा ईंटों से कराया गया था परन्तु इसकी पाषाण वेदिकाओं और तोरणों का निर्माण शुंगकाल के वात्सीपुत्र धनभूति द्वारा पूर्ण हुआ अतः यह स्तूप पूर्णरूप से शुंगकालीन माना जाता है।

इस पर बुम्ह देवो मानवको लिखा है।
ठीक उसके बगल में बोद्धि वृक्ष बना है।
यानी
बोद्धि वृक्ष भगवान बुद्ध का सांकेतिक चिन्ह है और भगवान बुद्ध को ही बुम्ह देवो कहा जा रहा है।

𑀯𑁂𑀤𑀺𑀲𑀸 𑀘𑀸 𑀧𑀤𑁂𑀯𑀸𑀬𑀸 𑀭𑁂𑀯𑀢𑀺 𑀫𑀺𑀢 𑀪𑀸𑀭𑀺𑀬𑀸𑀬 𑀧O𑀫 𑀣𑀪𑁄 𑀤𑀸𑀦𑀁
वेदिसा चाप देवाया रेवति मित भारियाय पठम थभो दानं
अर्थात
रेवति मित्र की पत्नी (भार्या) ने विदिशा धनुष पर भगवान को प्रथम स्तम्भ दान दिया।

भरहुत स्तूप से स्तम्भ कलाकृति मिली है।
जिस पर कोशल नरेश सम्राट पसेनजीत रथ पर बैठे हुए दिख रहे है। इस मूर्ति को देखकर लोग पहचान जाए, इस वजह से उन्होंने मूर्ति के बगल में अपना नाम (राजा पसेनजी कोसलो) बम्ही लिपि में लिख दिया है।
साथ ही इसी अभिलेख पर ऊपर में चक्र बना है , जिस चक्र को दो व्यक्ति नमन कर रहे हैं, प्रणाम कर रहें हैं। उसी चक्र के ऊपर में लिखा है –
भगवतो धम चकं
यानी
यह चक्र भगवान गौतम बुद्ध का है।

अर्थात
भगवतो साकामुनिनो बोधो
गूगल मैप
Source –
1) Books of Rajeev Patel Sir & Rajendra Prasad Singh Sir
2) Images Source – https://en.wikipedia.org/wiki/Bharhut
3) वीडियो – धम्मलिपिकर मोतीलाल आलमचंद्र के यूट्यूब चैनल से हैं।

Committed to research & conservation of Buddhist monuments that have a historical heritage of India.
बहुत सुंदर चित्रण
कोटिशः धन्यवाद