महाराष्ट्र की प्रमुख बौद्ध लेणी

भारत में महाराष्ट्र राज्य में सबसे अधिक बौद्ध गुफाएं हैं। महाराष्ट्र में बौद्ध गुफाएं पहली शताब्दी ईसा पूर्व पुरानी हैं। अधिकांश गुफाएँ बौद्धो की हैं जिनमें विहार और चैत्य हैं। ये गुफाएं ऐतिहासिक अतीत की ललित कलाओं और शिल्पों को प्रदर्शित करती हैं।

भारत में लेणी स्थापत्य कला का श्रेय चक्रवर्ती सम्राट अशोक को जाता है। पहली लेणी बिहार राज्य (बराबर लेणी) में बनाई गई थी और बाद में पूरे भारत में फली-फूली। भारत में कुल 2000 लेणिया हैं और महाराष्ट्र में 1500 से अधिक लेणियाँ मौजूद हैं। इनमें से अधिकांश लेणियाँ बौद्ध लेणि हैं, और बाद में कुछ लेणियो को ब्राह्मणि लेणियो में बदल दिया गया। जैन लेणिया भी बनीं लेकिन उनका मूल बौद्ध लेणिया थीं। बौद्ध लेणियो को तराशने का एक विशिष्ट उद्देश्य था लेकिन हिंदू या जैन लेणियो में ऐसी चीजें देखने को नहीं मिलती हैं। प्रारंभ में, मूर्तियां बौद्ध लेणियो में ही विकसित हुईं, फिर बाद में हिंदू और जैन लेणियो में। बुद्ध की मूर्ति के बाद ही, हिंदू और जैन मूर्तियां बनाई गईं। हिंदू या जैन लेणियो में शिलालेख बहुत कम पाए जाते हैं।

बौद्ध लेणियो की संरचना को देखते हुए, लेणि में एक विहार, चैत्य, भिक्खु निवास और एक बेंच की संरचना होती है। लेणि के सामने एक या एक से ज्यादा पानी का कुंड होता है और लेणि में शिलालेख भी होते है जिसमे अक्सर लेणि के दान के बारे में लिखा होता है। बौद्ध लेणियो का निर्माण वर्षा ऋतु में बौद्ध भिक्षुओं के आवास के लिए किया गया था।

लेणियो के अधिकांश अवशेष सह्याद्री पर्वत पर पाए गए हैं। सह्याद्रि में आग्नेय शैलों की अधिकता के कारण यहाँ लेणियो का निर्माण बड़े पैमाने पर देखने को मिलता है। अनावश्यक पत्थरों को हटाकर एक ही चट्टान को काटकर लेणिया बनायी गयीं। इस प्रकार की वास्तुकला अधिकतर महाराष्ट्र में देखने को मिलती है। यहाँ शिलालेखों में, हम लेणि को तराशने के लिए धम्म दान करने वाले सभी क्षेत्रों के लोगों का उल्लेख पाते हैं। महाराष्ट्र की लेणियो में शिलालेख न केवल महाराष्ट्र बल्कि भारत के आर्थिक इतिहास की पहचान करते हैं। भारत के विभिन्न व्यवसायों का शिलालेख में उल्लेख किया गया है। इसमें मुख्यतः तेल माली, लुहार, बढ़ई, सुनार, कोष्टी, सारथी, माणिकर, कृषक, वैद्य जैसे विभिन्न वर्गों के लोगों के दान के शिलालेख देखे जा सकते हैं, साथ ही प्रशासानिक अधिकारी वर्ग के शिलालेख भी देखे जा सकते हैं जैसे की महारथी, महाभोज, अमात्य, राजवैद्य सैनिक राजा इत्यादि, और इसके साथ बौद्ध भिक्षुओं और भिक्षुणियों के दान के भी शिलालेख देखे जाते हैं।

बौद्ध धर्म के शुरुआती दिनों में थेरवाद परंपरा के कारण, यहां बौद्ध लेणियो के निर्माण के बाद, बुद्ध स्तूप, चैत्यगृह, बोधि वृक्ष और कई अलग-अलग बौद्ध प्रतीकों को लेणियो में देखा और उकेरा गया था। सामान्यतः यह काल ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से तीसरी शताब्दी ईस्वी तक का है। इसके बाद महायान काल आता है जिसमें हमें बुद्ध की मूर्तियाँ, बोधिसत्व की मूर्तियाँ और साथ ही अन्य आकृतियों की मूर्तियाँ मिलती हैं। सामान्य महायान लेणिया तीसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व की हैं, लेकिन प्रारंभ में थेरवाद लेणियो के रूप में समान हैं। थेरवाद काल की लेणियो में हम मूर्तिकला संरचना में सुधार करके बनाई गई लेणियो के कई उदाहरण देख सकते हैं।

प्राचीन काल में बनी लेणियो को प्राचीन व्यापार मार्गों के रास्ते देखा जा सकता है। प्राचीन काल के प्रसिद्ध व्यापार मार्गों में नानेघाट, बोर घाट और थल घाट प्रसिद्ध हैं। सोपारा और कल्याण विश्व प्रसिद्ध वाणिज्यिक बंदरगाह हैं। जैसा कि पेरिप्लस और टॉलेमी ने उल्लेख किया है, इस व्यापार मार्ग को प्राचीन काल में पता लगाया जा सकता है। कोंकण में अनेक व्यापारिक पत्तनों का उल्लेख मिलता है, जिनमें से महाड एक व्यापारिक बन्दरगाह था। व्यापारी जहाज बानकोट की खाड़ी से सावित्री नदी और गांधारी नदी तक आते थे और यहाँ से भोरघाट होते हुए पुणे से पैठण और तेर से उत्तर भारत में माल जाता था। व्यापारिक यातायात भड़ौच बंदरगाह से सोपारा और वहाँ से कोंकण के कई बंदरगाहों तक माल पहुँचाया जाता था। कल्याण से नासिक होते हुए औरंगाबाद तक एक व्यापार मार्ग भी था जहाँ आप लेणि समूह देख सकते हैं।

हम महाड में गंधरपाले, कोल में लेणियो का रिकॉर्ड देख सकते हैं। गंधारपाले लेणि समूह में यह देखा जाता है कि इस स्थान पर भिक्षुओं का एक बड़ा समुदाय निवास करता था। गंधरपाले लेणि समूह को कई विद्वानों ने नोट किया है। यहां तक ​​कि पेरिप्लस टॉलेमी से लेकर ब्रिटिश काल के जेम्स बर्जेस और जेम्स फर्ग्यूसन की किताब “द केव एंड टेंपल” में रिकॉर्ड्स है और बॉम्बे प्रेसीडेंसी खंड XI के गजेटियर में भी देखा गया है।

महाराष्ट्र के रायगढ़ जिलों में सह्याद्री पर्वत श्रृंखलाएँ में आप ज्वालामुखी चट्टान से निर्मित ऊंचे पर्वत देके जा सकते हैं। इन्हीं पहाड़ों के कारण यहां किलों के निर्माण में भी तेजी आती दिख रही थी। समुद्री तट और बड़ी-बड़ी नदियों के कारण यहाँ व्यापारिक मार्गों का अच्छा अवसर था। यहाँ की ज्वालामुखीय चट्टान एक सख्त परत के साथ काले रंग की है। पत्थर की अच्छी गुणवत्ता के कारण रायगढ़ जिले में कई जगहों पर लेणि समूह देखे जा सकते हैं। जैसे की रायगढ़ में आप थानाले और नेनावली स्थित लेणिया और महाड़ में गंधरपाले, मोहोप्रे और कोल लेणिया।

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